न जाने कौन सा खेल विधाता रचना चाहता था कि जिस उम्र में उसने ख्वाब बुनने की ताकत को अपनी उरूज़ पर पहुँचाया उस वक़्त हमने गुनगुनाती शामों के ख़्वाब बुने। शामें ही अंत नहीं थीं। हमने चमकती सुबह लाने का भी सपना देखा। लोग कहते थे दोनों पूरक हैं, झूठ है। इन दोनों में विरोध जन्मों पुराना है भले ही सतह पर न दिखे और आखिर बेसब्र सुबह ने शाम को गुनगुनाने न दिया।
(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)
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