पत्रकारिता कभी कभी खेती की तरह लगने लगती है। खून शरीर से पसीने की तरह कागज पर बह जाता है पर घाटा ही नियति बनी रहती है। प्रेमचंद कहते थे कि जमीन किसान की माँ हैं। क्या कागज को यह सम्मान प्राप्त हो पायेगा। झूठा ही सही। जमीन की बिक्री हो रही है और कागज़ की चमक का तो कहना ही क्या है ? ज्ञानोदय का इंतज़ार है अर्थात एक किसान पत्रकार का इंतज़ार है।
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