Wednesday 30 December 2015

ज़िंदगी चरखा

ज़िंदगी भी चरखे की मानिंद है। जब तक चरखा चलता है बुनता रहता है और जब रुक जाता है तो बस रुक जाता है।
ठीक उसी तरह ज़िंदगी में रंगो भरे धागे बुनने के लिए हमारा चलते रहना भी जरूरी है। इस दौड़ में हम तब तक ही है जब तक हम चल रहे है। रुक गये कि हो गये बाहर।
इसलिए चलते रहिए दौड़ते रहिए बस रुकिए मत ताकि जीवन मे रंगत बनी रहे।

          (फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Sunday 27 December 2015

आसमाँ नीला क्यों है...

कितना कुछ होता है हमारे पास उसके बावजूद कभी-कभी लगता है कि हमारे अंदर कोई ऐसा अधूरापन है जो हमेशा कचोटता रहता है।
हमें किसी की जरूरत होती है और उसी के छलावे में उलझते जाते है। दोष हमारा ही होता है।
अनदेखों के ख़्वाब सुहाने होते पर उन ख़्वाबों की परिणति दु:ख देती है।
इस वजह से हमारा अकेलापन अधूरापन और ज्यादा बढ जाता है। हम देखते है कि सबकुछ नीला-नीला है

            (फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Tuesday 22 December 2015

गांव ज़िंदगी है

गांव सुकून है, गांव चैन है, गांव ज़िंदगी है। शहर के भागदौङ भरे जीवन से निकलकर गांव में कदम रखते ही कितनी खुशी होती है।
चारों तरफ खुलापन, पेङ-पौधे, पशू-पक्षी और मिलनसार लोग। स्थानीय संस्कृति, खान-पान, लोक संगीत इन सब को देखकर एक अलग ही एहसास होता है।
खुली सङकें और उनपर कुलांचे भरते वन्यजीवों को देखकर लगता होता है कि हमारा भी कोई अस्तित्व है, हमारी भी आज़ादियां है।

आह कितना सुकून है यहां।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)


Friday 18 December 2015

ठोकर जो लगी

ठोकरें हमें सिखाती है। कईं बार हम कुछ चीज़ों को अपने मन से ही अच्छा मानकर उनका अनुसरण करने लगते है। लेकिन जब वो अपना असली रंग दिखाती है तब मालूम होता है कि हम कितने गलत थे।
अगर एक ठोकर में संभल जाते है तब हमें सही गलत की पहचान भी होने लगती है। अगर हम ठोकर के बाद भी नहीं संभलते है फिर धंसते जाते है गहरे दलदल में। और डूब जाते है।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Wednesday 16 December 2015

दत्तानी का नाटक बस दत्तानी का नहीं

उम्मीदें हाथ से छूट जाती हैं। ख़त फड़फड़ाते हुए तेज़ हवा में उड़ जाता है। वक़्त भागता हुआ सामने से निकल जाता है। चाहे जितना पीछा कर लें उतनी रफ़्तार हममें कहाँ?
वो पीछे हम आगे बढ़ते हैं...
हमारे पास रह जाती हैं बस कुछ यादें। यादें जो सहारा बनती हैं जिंदगी का। पर हमेशा नहीं कई दफे यादें ही होती हैं जो दम भी घोंटने लगती हैं। बुरी यादें आसानी से पीछा नहीं छोड़ती।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)


Tuesday 15 December 2015

क्या अब पेड़ों पर आधा कटा सेब ही फलेगा?

'अन्न का देवता' मर रहा है। खेतों में लाशों का जमघट है और कुदाल हथियार बन रहे हैं। पानी का रंग लाल है और सूरज डूबने के इंतजार में है। सपने भी चादर ओढ़ के सो रहे हैं। पहाड़ डर से काँप रहे हैं। शायद उन्हें नींद में मिर्गी आ रही है। लेकिन समय इतना भयावह है कि अब पेड़ों पर आधा कटा सेब ही फलेगा? कहीं से आवाज आ रही है-ये दाग दाग उजाला...

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Sunday 13 December 2015

क्या सुबह सिर्फ सूरज से होती है उम्मीद से नहीं?

दुनिया में भूख शोषण असमानता अन्याय लूट खसोट विभाजन शत्रुता का अँधेरा फैल गया हैमानवता मसीहा के इंतजार में बैठी हैक्या सुबह सिर्फ सूरज से होती है उम्मीद से नहीं? वक्त आ गया है कि प्रत्येक व्यक्ति ख़ुद स्वयं का मसीहा बन जाएहमारे जागृति के बाद भविष्य सदैव मात्र एक कदम दूर होता हैचलो लिख देते है उम्मीद की कलम से नई सुबह के आकाश में मनुष्यता की मुक्ति का गीत।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

दिल्ली की सर्दी और परीक्षा की शाम

सर्दी की शाम में परीक्षा से उपजती गर्मी से मन बेचैन हो सकता है पर खिड़की पर एक कबूतर का खिलंदडपन और दूर कही संगीत की बजती धुन आनंद के साम्राज्य को नष्ट नहीं होने देतीदुनियाँ में सैकड़ों चुनौतियाँ है पर संभावनाओं की जमीन भी असीम हैइंतजार है उस सुबह का जहाँ किताबों की सतह पर बनेगें चिड़ियों के घोसलें और कलम की स्याही में तैरेंगीं मछलियाँ और दुनियाँ और खुबसूरत हो जाएगी

(फोटो: आनंद प्रधान)

Thursday 10 December 2015

रेगिस्तानी का प्रेम

वह सोचता है जिस दिन रेगिस्तान से उसका प्रेम गलत साबित हो जायेगा उस दिन उसकी सच्चाई के सारे माले ध्वस्त हो जायेंगे।
और सब मालों के नीचे दबी कराह रही होगी उसकी आत्मा।
पर वह जानता है कि किसी भी कीमत पर उसकी आत्मा एवं रेगिस्तान के प्रति प्रेम झूठे नहीं हो सकते।
मिरगानेणी सुनो तुम रेगिस्तान हो मेरी आत्मा तुमसे प्रेम करती है यही सचाई है इससे आगे का सारा छलावा झूठा है।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

तारबंदी

'अरे आपको क्या मालूम ये तारबंदी तो अभी हुई है। एक ही तो थे हम लोग। अब तो अपनों से मिलने के लिए भी इतने चक्कर लगाने पड़ते है कि ज़िंदगी वीज़ा पाने में ही निकल जाती है'
सुषमा स्वराज की पाकिस्तान यात्रा पर इतना हंगामा मचा है। किसी ने सोचा है सीमा के आस-पास के लोग कैसे जीते है। एक ही संस्कृति, क्षेत्र, परिवेश के लोगों को आंतकवाद और राजनीति ने कोसों दूर कर दिया।



(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Wednesday 9 December 2015

कोठे पर शांति, मन में लिप्सा

पहले हमने युद्ध लड़े फिर हमने कहा युद्ध किसी समस्या का हल नहीं हो सकते। सारी समस्याओं का हल शान्तिपूर्वक बात करके भी निकाला जा सकता है। फिर शान्तिपूर्वक बात करने का माहौल बने इसलिए युद्ध लड़े। फिर तुम आए और तुमने कहा कि हम शांति के दूर के मामा हैं। हमने शांति को तुम्हारे जिम्मे कर दिया। उस समय हम ये थोड़े जानते थे कि तुम शांति को ले जाकर बाज़ार में बिठा दोगे।

(फोटो साभार: सुमेर सिंह राठौड़)

Monday 7 December 2015

पँछी उतरते क्यों नहीं

भीङ से ऊबकर हम खुलेपन में जाते है ताकि हमें एहसास हो आजादी का। एहसास हो कि इस भीङ भरे शहरों की बहुमंजिला इमारतों से परे भी दुनिया है।
सर्द दिनों में कुछ प्रवासी पँछी भी लम्बी उङानें तय करके तालाबों के किनारे खुले मैदानों में आते है।
लेकिन आजकल पँछी जमीन पर नहीं उतरते और न खुलापन दिखता है। दिखेगा कैसे हमने सब मैदान और जंगल तो ढक दिये ना विकास की चादर से।

रात के सन्नाटे की खोज में सड़क

आधी रात को मन ही बेचैन हुआ करता था आजकल तो रास्ते भी बेचैन रहने लगे हैं दिन भर भाग रहे लोगों और गाड़ियों के बोझ से घायल सड़क को वह एकांत भी नसीब नहीं होता जो एक प्रेमी युगल को चाहिए रास्ते का प्रेम एकांत हैं जिसमे वह प्रतिदिन मानव समाज के सापेक्ष अपना वितान माप लेता है अब रात के बारह बजे दिल में शहनाई और सड़क पर सभ्यता की कराह गूंजती है

Saturday 5 December 2015

उनींदे लोगों का शहर

ये दिल्ली भी ना जाने कैसा शहर है लोगों को जगाया जाता है रातभर डंडा बजाकर की होशियार रहना। अब चैन से सोने देते नहीं क्या होशियार रहें। इससे अच्छा तो हमारे गाँव है और कुछ नहीं पर चैन की नींद तो है कम से कम। सोये रहो खर्राटे मार के। कोई टेंशन नहीं। यार बड़ा खराब शहर है कितने मजबूर होते है लोग जो ऐसे शहर में रहते है। खुद को मारकर जीते है।