Sunday 31 January 2016

सूरज का सातवाँ घोड़ा@मंडी हाउस

सफ़ेद घोड़े की नाल से सुखी होता है भविष्य, माणिक मुल्ला की कहानियों में खोजते हैं हम अपनी दोपहर की आकांक्षाएँ, प्रेम का निर्धारित करते हैं आर्थिक मूल्य और पढना चाहते हैं उसे मैट्रिक के गणित की तरह, नैतिक विकृति से दूर रहने की कोशिश में हम परिष्कृत कायरता धारण कर लेते हैं मर गए हैं सूरज के छह सभी घोड़े, हमारे अंधेपन से सुर्योदय रुका हुआ है, इंतजार है सूरज के सातवें घोड़े का
(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Saturday 30 January 2016

जूनून का ईंधन है असंतोष

असंतोष जीवन की सबसे मूल्यवान पूँजी है। जब तक हमारे मन में संतोष की भावना रहती है तब तक हमारे प्रयासों में जोश और तन्मयता की मात्रा इतनी नहीं हो सकती जितनी की मन में असंतोष होने पर। इसलिए बहुत जरूरी है कि हर वक़्त किसी न किसी तरह से खुद को असंतुष्ट रखा जाए। असंतोष ही जूनून का प्रेरक है हमें ये बात पता हो तो हम इसका अपने लिए फायदा उठा सकते हैं।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)



Thursday 28 January 2016

मैं अकेलापन हूँ


चलते चलते दौड़ते दौड़ते अपने स्टेटस को बनाते हुए जब तुम थक जाते हो। मुझे खोजते हो। कुछ पल के लिए ही सही मेरे पास आते हो। खुद से भाग कर खुद को खोजते हुए। कुछ पल मेरे आगोश में रह कर खुद को खोजते हो। शायद तुम्हारी खोज पूरी भी हो जाती हो। फिर भी तुम लौट जाते हो उसी दुनिया में जिससे भागकर मेरे पास आये थे तुम कुछ ही पल के लिए।


चित्र साभार: सुमेर सिंह राठौड़

Tuesday 26 January 2016

तारे शहर से डरते हैं क्या

सोचा कि बाहर बालकनी में जाकर टूटता हुआ तारा देखूं और मांग लूं तुम्हें। टूटता हुआ तो क्या कोई तारा भी नहीं दिखा।
ये शहरों में तारे नहीं होते क्या? शायद शहरों में सितारे होते हैं स्टार।
सितारे बनने के लिए पीछे छोड़ने पड़ते हैं तारे। लाखों तारों से भरा आसमान छोड़कर ही तो बनते हैं लाखों कमाने वाले स्टार।
मैं आँखें बंद करता हूं तो लगता है आसमान के सारे तारे टूट रहे हैं।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)


माड़सा छब्बीस जनवरी कित्ती तारीख को है...

सर्द सुबह जल्दी उठकर बिना सलवटों की स्कूल वर्दी, परेड, मिठाई, ईनाम, नृत्य, मस्ती। गणतंत्र दिवस का अपना नॉस्टेलजिया है।
एक वक्त बाद ये चीज़ें पीछे छूट जाती है। गाँवों में राष्ट्रीय पर्व की अलग ही झलक होती है।
ग्रामीण स्कूलों में बच्चों को साल में दो ही दिन तो जलवा दिखाने का मौका मिलता है।
ये बचपन के दिन कहीं भी देशभक्ति गीत गूंजते ही आँखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगते है।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

26 जनवरी : देश में गण_तंत्र

पहली जनवरी याद करते करते 26 जनवरी आ गयी स्वतंत्रता की मर्यादा निर्धारित की गयी और गण_तंत्र का जन्म हो गया अधिकार मिले, कर्तव्य निर्धारित हुए और रक्त की अंतिम बूँद तक देश की रक्षा के संकल्प से देश का (आत्मा का नहीं) आकाश गूंज उठा थोडा सा गर्व हुआ ‘चयनित इतिहास’ और देखे गए भविष्य के सुखद अतार्किक स्वप्न पर जिसमें सुख की रोशनी की अधिकता से व्यक्ति लोकतंत्र का रास्ता भूल जाता है

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Monday 25 January 2016

गण तंत्र में फंसा हुआ है

गण तंत्र में फंस हुआ है।
आवाज सुनाई दे रही है क्या किसी को मेरी।
यही तो तुम लोगों की प्रॉब्लम है।
आवाज सबकी सुनाई पड़ती है इस तंत्र में थोड़ी या ज्यादा।
लेकिन बोलते काहे नहीं हो यार।
आते काहे नहीं हो हाथ थामने, मदद करने।
हम अपना राग अलापे रहें तुम अपना।
देश का कर दें हैप्पी बड्डे और हाई वॉल्यूम पे गाना सुनें- ये देश है वीर जवानों का।
हैप्पी रिपब्लिक डे।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Sunday 24 January 2016

जाड़े की धूप और तुम्हारा साथ

तुमको गए 6 महीने हो गए हैं बरसात आयी और वह भी चली गयी तुम ने एक ख़त भी नहीं लिखा मैं तुम्हारा इंतजार करता रहा कि तुम आओगे और हम एक बेहतर खुबसूरत दुनियां बनायेंगें, पर तुम नहीं आए जीवन जम गया हैजाड़े की धूप में बैठा हूँ और तुम्हारे साथ बिताए पुराने पल याद कर रहा हूँ। तुम जानते हो, तुम्हारे साथ ज़िंदगी मुझे जाड़े की धूप की तरह गुनगुनी लगती है।
(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Saturday 23 January 2016

'मृच्छकटिकम् : प्रेम की शाश्वत गाथा

शूद्रक का नाटक 'मृच्छकटिकम्' पढ़ते हुए प्रेम की संवेदना से अभिभूत होना स्वाभाविक है आदर्श संपन्न धनहीन चारुदत्त और उदात्त विचारस्वामिनी गणिका वसंतसेना के मध्य प्रस्फुटित होता प्रेम आज भी पाठक को रोमांच से भर देता है त्याग और समर्पण की राह पर चलकर प्रेम मंजिल पर पहुंचता है प्रेम द्वन्द रचता है और सृष्टि खुबसूरत और गतिशील हो जाती है 'मृच्छकटिकम्’ के बहाने इतिहास में देख आया कि प्रेम शाश्वत है और सरल भी

Friday 22 January 2016

चौराहे पर धुंधलका

सर्द दिनों में कभी-कभी घना कोहरा छा जाता है और सब कुछ ठप हो जाता है। यही हमारे साथ भी होता है। कभी-कभी ऐसा कोहरा छाता है कि कोई राह नज़र नहीं आती है। इस दौरान हम धैर्य से आगे बढने के बजाय ऐसे हाथ-पैर मारते है कि सारे रास्ते ही बंद हो जाते है।
ऐसे मौको पर  सदैव रास्ते के दिख जाने का इंतज़ार करना चाहिए। तभी सुरक्षित आगे बढ पायेंगे।


प्रकृति पूछ रही है...

भोजन की तलाश में मनुष्य जंगल में गया और जंगल समाप्त होने लगे पानी पीने मनुष्य नदी की तरफ गया और नदी प्रदूषित हो गयी मनुष्य विकास के लिए मनुष्य के पास गया और दंगा हो गया मनुष्य ने रक्षा के लिए परमाणु बम बनाया और 100000 लोग बम विस्फोट में मर गए मनुष्य के सभी कार्य विडम्बना और विरोधाभास का पर्याय क्यों हैं? प्रकृति मनुष्य से पूछ रही है कि वह चाहता क्या है?

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

जड़ों से दूर...

लोक जीवन कितना प्यारा होता है। उसकी खुशबू बनावटी नहीं बल्कि माटी की सौंधी महक होती है। लोक गीत, लोक कलाएँ इनका प्रकृति से जुड़ाव आकर्षित करता है।
हालांकि बदलाव शाश्वत नियम है और इसे हम रोक नहीं सकते। लेकिन प्रकृति के साथ छेड़छाड़, लोक जीवन का त्याग और इन सब बदलावों का हमारे जीवन पर प्रभाव सब देख रहे है।
कितने चिड़चिड़े और अजीब हो रहे हैं लगता है भीड़ में अकेले खड़े हैं।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Thursday 21 January 2016

नींद से बगावत

सपने रात की पूंजी हैं यह पूंजी ही हमें आकर्षित करती है कि हम रात की गोद में खुद को सौंप दें नींद एक पवित्र और अनिवार्य लालच के सामने जीव का समर्पण मात्र है जब जीवन यथार्थ के खुरदरी जमीन पर रगड़ खा रहा होता है और सपने साँस लेना बंद कर देतें हैं, उस वक्त नींद विदा ले लेती है रात का सत्य जानना हो तो सपनों और नींद से बगावत कर दो

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Wednesday 20 January 2016

जो बोलते हैं वो झूठ होता है

I सब बोलते हैं खूब बोलते हैं लगता हैं बोल बोल के बदल देंगे सब कुछ। लेकिन पता है जो बोलते हैं वो सब झूठ होता है।
कुछ बोलते हैं रटा हुआ कुछ बोलते हैं बोला हुआ पर बोलते सब है। सबकी नज़र में सिर्फ गोलपास्ट होता है और मारते रहते है फुटबॉल को जब तक गोल ना हो जाए।
भईया हम तो बोलते नहीं है क्यों कि पता है कि बोलेंगे तो वो झूठ होगा।
(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

यह रास्ता...

बहुत उम्मीद के साथ मैं इस रास्ते की ओर देख रहा हूँ। उम्मीद इस बात की कि शायद ये रास्ता मुझे ले जायेगा एक ऐसी जगह, जहाँ सिर्फ इन्सान होंगे, इंसानों में प्यार होगा और ये प्रकृति होगी। प्रकृति जो हमारी जरूरतों और विलासिता में कहीं खो गयी है। ये रास्ता मुझे ले जायेगा एक ऐसी दुनिया में जो बेहद खूबसूरत होगी जहाँ जाति, धर्म, क्षेत्र, संप्रदाय, पंथ और पूँजी की ओछी राजनीति नहीं होगी।



चित्र : अजय कुमार

मेरा देश - किताबिस्तान

यह हिन्दुस्तान नहीं, यह पाकिस्तान नहीं, यह किताबिस्तान है जहाँ शब्द व्यक्ति की जाति, रंग, धर्म पर कोई ध्यान नहीं देते है। शब्द त्याग की राह पर चलते चलते शाश्वत हो जाते हैं। शब्द सभ्यता की पूंजी है। पुस्तकालय के क्षण पढाई के हो सकते हैं और प्रेम के भी। यह भविष्य के लिए अतीत की मीठी याद हो सकते हैं जिसपर लिखेंगे आप कोई कविता, कहानी और बनायेंगें कोई प्यारा सा रिश्ता। चलिए पढ़ें...
(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Tuesday 19 January 2016

क्या यूँ ही मर जायेंगें हम सब एक दिन ?

मरना भयावह क्यों है जब कि वह कलेवर का परिवर्तन मात्र है। मरना विशेष विषय नहीं, मुख्य तो मौत से पहले का जीवन है। जीवन के रंग ही निर्णय करते हैं कि मौत का पहनावा कैसा होगा। ठीक वैसे ही जैसे भविष्य की जड़ अतीत में धँसी होती हैं। दरअसल मरना जिन्दा होने की प्रक्रिया हो सकती है। मौत के भय से मुक्त होकर जिंदगी को जिस्म से लपेट लेने की जरुरत है। तो चलें... 

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Sunday 17 January 2016

किताबों से जिन्दा हूँ मैं

किताबों के बीच बैठा हूँ। सूंघ रहा हूँ इतिहास और देख रहा हूँ भविष्य। किताब ! हे किताब ! तुम मेरे साथ क्यों जागती हो सारी रात जो डराने वाली सन्नाटे में डूबी रहती है। जिस रात चाँद भी अँधेरे से डर के छुप जाता हैं। सच बताऊँ केवल तुम्हारे कारण ही मैं परंपरा और शासन दोनों से ही लड़ लेता हूँ। तू साथ ही रहना मेरी किताब तेरे साथ रहकर कभी नहीं मरूँगा मैं।
P.C.-Peeyush Parmar
  

Saturday 16 January 2016

एक खामोश डायरी को पढ़ना

मधुकर उपाध्याय की किताब 1915 गाँधी: एक खामोश डायरी पढ़ी। डायरी मोहन से महात्मा तक की यात्रा से परिचय कराती है। पुस्तक की शैली गाँधी की तरह ही सहज-सरल है जो उपदेश कम और उत्साह अधिक प्रदान करती है। यह किताब बताती है कि गाँधी एक आम आदमी थे और हम भी गाँधी बन सकते है। गाँधी निरंतर सीखने का नाम है। गाँधी को राजघाट संग्रहालयों चौराहों से घर बुलाने का वक्त आ गया है।
P.C.-Peeyush Parmar

Wednesday 13 January 2016

एक किसान पत्रकार का इंतज़ार

पत्रकारिता कभी कभी खेती की तरह लगने लगती है। खून शरीर से पसीने की तरह कागज पर बह जाता है पर घाटा ही नियति बनी रहती है। प्रेमचंद कहते थे कि जमीन किसान की माँ हैं। क्या कागज को यह सम्मान प्राप्त हो पायेगा। झूठा ही सही। जमीन की बिक्री हो रही है और कागज़ की चमक का तो कहना ही क्या है ? ज्ञानोदय का इंतज़ार है अर्थात एक किसान पत्रकार का इंतज़ार है।  

Monday 11 January 2016

सन्नाटे का सागर लबरेज़ हो चूका है !

साहिल पर खड़ा हूँ पर नाव का इंतजार नहीं है। चीख चीख कर रोना चाहता हूँ पर पुरुषत्व का पाखंडी विचार मुझे रोने नहीं देता। क्या रोना ही विकल्प है? हम चीख क्यों नहीं सकते? जब बेचैनियों के दरिया से सन्नाटे का सागर लबरेज़ हो चूका है तो क्यों नहीं हम फूंक देते हैं सभी चुप्पियों की चादर जो जाति धर्म के रंग में रंगी गयी हैं और जिनसे हमारा मानस ढँक दिया गया है।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Thursday 7 January 2016

बेसब्र सुबह ने शाम को गुनगुनाने न दिया

न जाने कौन सा खेल विधाता रचना चाहता था कि जिस उम्र में उसने ख्वाब बुनने की ताकत को अपनी उरूज़ पर पहुँचाया उस वक़्त हमने गुनगुनाती शामों के ख़्वाब बुने। शामें ही अंत नहीं थीं। हमने चमकती सुबह लाने का भी सपना देखा। लोग कहते थे दोनों पूरक हैं, झूठ है। इन दोनों में विरोध जन्मों पुराना है भले ही सतह पर न दिखे और आखिर बेसब्र सुबह ने शाम को गुनगुनाने न दिया।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Monday 4 January 2016

नव वर्ष में नया क्या है !

नव वर्ष में मात्र 'नव' नामक शब्द नया है। इसके अतिरिक्त सब कुछ पुराना - प्रेम की आँच हो या रश्क़ की सर्दी। जब कैलेण्डर ने अपना पन्ना बदल लिया तब किसान खेत में था और मरीज़ अस्पताल में। हमारी चेतना हमेशा अधूरेपन के रास्ते पे ही क्यों गमन करती है! क्या आदम के श्राप में "स्वार्थ' भी था! नयापन वक्त की नहीं बल्कि प्रकृति की विशेषता है तो चलो कुछ नया करते हैं !

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)