हर रोज़ टूटने और जुड़ने की
आदत सी हो गयी है। अक्सर टूट कर बिखर जाता हूँ। बिखर जाता हूँ आईने सा चकनाचूर
होकर। शायद बिखरना ही मेरा दस्तूर हो गया है। खुद से खफा होकर निकल पड़ता हूँ शहर
की भीड़ में। देखता हूँ कुछ बच्चों को कुछ बूढों को कुछ बेघर बेसहारा लोगों को।
जिनकी जिन्दगी में संघर्ष तो है पर मौज भी। मौज है उस शांति की जिसे मैं खोजने निकला
हूँ।
चित्र : अजय कुमार |