Monday 25 April 2016

बिखरने और जुड़ने के क्रम में...

हर रोज़ टूटने और जुड़ने की आदत सी हो गयी है। अक्सर टूट कर बिखर जाता हूँ। बिखर जाता हूँ आईने सा चकनाचूर होकर। शायद बिखरना ही मेरा दस्तूर हो गया है। खुद से खफा होकर निकल पड़ता हूँ शहर की भीड़ में। देखता हूँ कुछ बच्चों को कुछ बूढों को कुछ बेघर बेसहारा लोगों को। जिनकी जिन्दगी में संघर्ष तो है पर मौज भी। मौज है उस शांति की जिसे मैं खोजने निकला हूँ

चित्र : अजय कुमार

तुम... एक पहेली और हम.. हम खुली किताब

कितनी अजीब बात है न,

सबको पता हैं मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, पर तुम हो कि समझने की कोशिश भी नही करती। सच कहूँ तो तुम मेरी समझ के परे हो। कभी-कभी लगता है जैसे "तुम एक पहेली हो जिसे मैं शायद कभी सुलझा ही न पाऊँ और मैं, मैं एक खुली किताब, जिसे तुम पढ़ने की कोशिश ही नहीं करती" बस ये किताब खुद ही तुमसे अपनी व्याख्या करने को बेताब रहती है।
PC: Peeyush

Sunday 24 April 2016

समय का पहिया कभी पंक्चर नहीं होता

समय का पहिया हमेशा चकाचक रहता है। इसकी गति कभी कम होती ही नही। ना इसमें कभी हवा कम होती है और ना ही पंक्चर होता है।
कैसा भी रास्ता हो बुरा, भला, ठोकरों वाला कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता।
हम बस उन पहियों पर सवार अपने चेहरे के भाव बदलते रहते हैं। और पहिया बेपरवाह हर भाव को अपनें समेटते हुए दौड़ता रहता है।
बड़ी मजेदार है यह ज़िंदगी की गाड़ी।

        (Photo: Sumer Singh Rathore)

रात की नदी और अज्ञेय चेतना

रात आधी बीत चुकी है। कमरे में एक सन्नाटा है जिसको पंखे की हवा चीर देती है। खिड़की के बाहर की दुनियां अँधेरे में कहीं गुम हो गयी है। नदी दूर चली गयी है और रेगिस्तान अब दोस्त बनता जा रहा है। कल 'आषाढ़ का एक दिन' है। मुक्तिबोध सी द्वन्दात्मक चेतना ही नियति है। किताब के पन्ने पलटते ही जिंदगी का एक अध्याय समाप्त हो गया। जीवन यात्रा आपको अज्ञेय बना कर छोड़ेगी। हवा...
चित्र साभार : पीयूष परमार 

Tuesday 19 April 2016

हवा के रेतीले हाथ

ज्यों ज्यों दिन तप रहे है मुझे अपने रेगिस्तान की ठंडक लिए शामें याद आ रही है। दिन को आग हुई रेत शाम में सुहावनी हो जाती हैं। उस ठंडी रेत के आलिंघन में मोहब्बत हैं।
उस अथाह रेत में आजादी हैं, सपने हैं, मोहब्बत है। दिनभर की गर्म आंधी शाम की ठंडी रेत से टकराकर बालों से टकराती हैं तो लगता है जैसे बाल सहला रही हो। 
इस रेगिस्तानी रेत में अथाह प्रेम हैं।





Wednesday 13 April 2016

75 शब्दों का पिटारा- ज़िंदगी@75

हमारे पास बहुत सारे सपने और कहानियां हैं, हम समाज, व्यवस्था और अपने आस पास के बारे में सोचते हैं। उसको लिखते हैं। अब ज़िंदगी ठहरी छोटी सी और इस डिजिटल युग में किसी के पास वक्त भी नहीं है कि इतना कुछ पढे।
तो हमने सोचा क्यों ना आपको केवल 75 शब्दों में अपनी बातें सुनाई जाए। और इसके लिए हमने बनाया यह ब्लॉग जिंदगी@75।
Video (Ajay Kumar)
सुनो दोस्त, फीडबैक जरूर दीजिएगा। वही हमारा मेहनताना है।

लाल आलता और लाल बेर

अँगुलियों का रंग लाल था और मुठ्ठी में लाल रंग की बेर भरी थी होठों पर लाल रंग की चमक और आँखों में लाल चुहलपन भरकर उसने एकबार देखा और पूरब की छत पर एक सूरज निकलकर झांकने लगा बेर की खटास पूरे सृष्टि में फ़ैल गयी थी मुँह और आँख में पानी था सिन्दूर की एक रेख उत्तर से चढ़कर दक्खिन में कहीं उतर कर गुम हो गयी और मैं अकेले खड़ा रह गया

         (Photo: Sumer Singh Rathore)
 

Tuesday 12 April 2016

कतरनें वक्त की

समय ने गोता लगा दिया। सोचा हर बार की तरह गुजर जायेगा लेकिन अंतिम वक्त पर उदासियां लिपटने लगी हैं।
अप्रेल का शांत, सुनहरा, आवाज़ों का महिना इस रास्ते का अंतिम पड़ाव बनकर आया है। ज्यों मौसम उदास हो रहा है इस रास्ते में बीते वक्त की कतरने उड़कर चेहरे से टकरा रही हैं।
बहुत अज़ीब था यह रास्ता। समझ ही नहीं आता कि बिना पता चले कब यह बहुत कुछ देकर खत्म हो गया।



शांति की चादर ओढे सफेद पहाड़ों में

खिड़कियों से रोशनी ने झरना बंद कर दिया। सामने वाले पेड़ पर पँछियों ने चहचहाना छोड़ दिया। मैं सो गया था गहरी नींद में।
अचानक सालों बाद एक दिन मैं जग गया सुबह जल्दी। रोशनी झूमकर खिड़की से उतर आई। पँछियों ने मधुर गीत सुनाये।
मैं उठकर देखता रहा पहाड़ों को। सफेद चादर ओढे पहाड़ों को।
मुझे पता है कि एक दिन आयेगा जब मैं इस सुबह को जी रहा होऊंगा। पहाड़, जंगल, गाँव, चहचहाहट।


        (Photo: Sumer Singh Rathore)

Sunday 10 April 2016

...उदासी...

सूरज ढल रहा था और मेरे मन का उत्साह भी। आसमान के साथ मुझपर भी अंधेरा छा रहा था। मैं खोया हुआ महसूस कर रहा था जैसे किरणों के साथ ही ख़त्म हो जायेगी मेरी जिंदगी से रौशनी भी। कहीं दूर जैसे झरने से गिरता पानी पत्थरों को गहरी चोट दे रहा हो ठीक वैसा ही दर्द मेरे अंदर उठ रहा था। दर्द भी ऐसा जो चीर दे। ये एहसास ये दर्द मेरी उदासी थी।

चित्र : अजय कुमार


बब्बन काका का नीम पेड़

गाँव में पुराना नीम का पेड़ कट गया। पेड़ के कटने के अगले ही दिन बब्बन काका चल बसे। उसके बाद कभी चौपाल नहीं बैठी। आग हर जगह जल रही थी पर उसके चारो ओर बैठकर बात करने के लिए मन नहीं थे। शहर के साज की आवाज से गाँव गूँज रहा है। डिस्को के शोर में कीर्तन भूल चुके हैं हम क्यों कि राम अब बब्बन काका का राम नहीं बल्कि एक नेता है।

          (Photo: Sumer Singh Rathore)

Thursday 7 April 2016

हाल-ए-दिल, इजहार से पहले

जानती हो?
मैं शायद डूब सा चुका हूँ, तुम्हारे रूप के सागर में। कभी कभी तैरने की कोशिश करता हूँ और उस पार जाना चाहता हूँ लेकिन अब आभास होता है कि डूब जाऊंगा क्योंकि तुम मुझे बहुत ज्यादा कंफ्यूज करती हो मैं समझ नहीं पाता कि अपने मन की बात तुमसे कैसे कहूँ और ये भी कितनी अजीब बात है ना? एक तुमको छोड़कर बाकी सब जानते हैं कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ


चित्र : अजय कुमार

आखिर किस क़दर बदल गई है जिंदगी।

जलन होती थी मुझे 
उन आंसुओं से जो तुम्हारे गुलाबी गालों को चूमकर तुम्हारे होठों को भिंगा देते थे। दर्द होता था मुझे जब तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान नहीं होती थी। बेचैन हो जाता था मैं, जब कभी तुम्हारे होंठो को छूकर कर एक भी आवाज़ मेरे कान में नहीं पड़ती और दिन बीत जाता था। कल तक मैं तुम्हें देखे बिना रह नही पाता था और आज तुम्हारे सामने आने की हिम्मत नहीं रही।

चित्र : अजय कुमार

Wednesday 6 April 2016

ज़िंदगी कहीं लॉग-इन छूट गया फेसबुक अकाउंट...

अपनी किताबें और लेपटॉप एक तरफ रख दिये। आधी से ज्यादा रात उसकी आँखों में डूब गई। रात गहराते ही नींद खिड़की से भाग जाती है। पँखा एकटक देखता है उनींदी आँखों को। कभी कभी लगता है ज़िंदगी कम्प्युटर लैब में खुला रह गया फेसबुक अकाउंट है। जहां पर कोई मजाक में आपकी टाइमलाइन से वो शब्द पोस्ट कर जाता है जिनसे नसों में अफीम घुला हो।
सबको सन्मति दे भगवान।
फेसबुक माता की जय।


 (फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)

Monday 4 April 2016

मौत की गोद में मेरा गवाह

जेएनयू की सुनसान सड़क और उस पर मैं और तुम। पेड़ खड़े हैं और हमारी जिद्द के सामने वे सब भी अड़े हैं। रात को बुलाने के लिए सुबह ने शाम को भेजा है। तुम्हारी सिगरेट से जिंदगी धुँआ धुँआ हो गयी है। कोहरा सिगरेट की पाइप पर दम तोड़ लाश बन जाता है और कान में आके कह जाता है कि मैं मर भले ही गया हूँ पर इस शाम की गवाही जरूर दूँगा।

चित्र साभार : अजय कुमार 

 

वर्चस्व का बाज़ार या बाजार का वर्चस्व

युद्ध के दो ही कारण हैं, बाजार और वर्चस्व। पूरी दुनिया पर बाज़ार का वर्चस्व है और उसी बाजार पर वर्चस्व के लिए युद्ध होते हैं। जीतता कोई नहीं सिवाय बाजार के, लेकिन हर बार हार जाती है मानवता। मरते हैं लाखों ऐसे लोग जो सिर्फ अपनी क्षुधा तृप्ति के लिए जीते रहे। उन्हें किसी की हार जीत से कोई वास्ता नहीं उन्हें चाहिए दो वक्त की रोटी और चंद शामें अपने परिवार के साथ...

चित्र : अजय कुमार 

Friday 1 April 2016

तुम्हारी आँख ही मेरी कहानी है

अनजानी राह का पथिक हूँ। आजकल तुम्हारी आँखों की ही कहानियों को गुनगुनाता रहता हूँ। कल जब सूरज अंतिम बार मुझसे विदा ले रहा होगा तुम जरूर आना। मैं अँधेरे में तुम्हारी कहानियों के बगैर नहीं रह सकता। तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे हमेशा डराती रहती है। आँखों की काली रेखा सवाल पैदा करती है। दुनियाँ के सवालों के बोझ से मेरे कँधे दुःख रहे हैं। मुझे अब ऑक्सीजन की जरुरत है जो कि तुम्हारी साँस है।
(Sumer Singh Rathore)

उफ्फ ये परिभाषाएं

लिखना है यार। क्या लिखूंबहुत मुश्किल है लिखना?
मैं जब भी बहुत दिनों बाद लिखने बैठता हूं तो इन्ही सवालों से घिर जाता हूं। लिखने के धंधे में हैं तब लिखना शायद मुश्किल ना हो लेकिन दिल से लिखना हो तो ऐसे ही लिखा जाएगा, दिनों बाद या महिनों बाद कभी-कभी।

आजकल कोशिश करता हूं की समझ लूं लिखने की परिभाषाएं, ताकि बता सकूं क्या लिखा है कविता, कहानी या नज़्म। उफ्फ ये परिभाषाएं।
                                (Photo; Sumer Singh Rathore)