Friday 4 November 2016

कलयुगी ज्ञान : नमक का दारोगा - प्रेमचंद

नौकरी में ओहदे पर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे-चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं।
P.C.-Peeyush Parmar

Thursday 3 November 2016

पूंजीवादी - खलील ज़िब्रान

एक टापू पर मैंने ऐसा जीव देखा जिसका सिर मनुष्य का था और पीठ लोहे की। वह बिना रुके धरती को खा रहा था और समुद्र को पी रहा था। मैंने पूछा, क्या तुम्हारी भूख कभी नहीं मिटी और प्यास कभी शान्त नहीं हुई?"
वह बोला, "मैं सन्तुष्ट हूँ। मैं खाते-खाते और पीते-पीते थक चुका हूँ लेकिन मुझे डर है कि कल को खाने के लिए धरती और पीने के लिए समन्दर नहीं बचेगा।"
PC : PEEYUSH PARMAR

Wednesday 2 November 2016

नेशन वांट्स टू नो बट व्हाट..!

वो बात करते करते चिल्लाने लगे, और बोले तुम्हें मेरे सवालों का जवाब देना होगा’, मैंने कहा हर सवाल का जवाब दिया है मैंने’, वो बोले नहीं, जवाब तुम्हारे नहीं हमारे होंगे, तुम वही बोलना जो हमें सुनना है, जो देश जानना चाहता है’, मैंने स्तब्ध होकर पूछा देश क्या जानना चाहता है, आप कैसे तय करेंगे?’

वो मुस्कुराकर बोले हम तय करेंगे, क्योंकि हमारी टीआरपी सबसे ज्यादा है, और हम तुमसे ऊंचा बोलते हैं

चित्र: अजय कुमार

Tuesday 1 November 2016

स्वप्न, साथी और उलटबांसियाँ।

जीवन कभी-कभी उलटबांसी लगता है। चीज़ें उल्टी नज़र आती है।
मेट्रो में दो डिब्बों के बीच बुढिया घास की गठरी लिए मतीरा खा रही है। पुरानी दिल्ली के बाज़ार में रेतीले टीले पर चरवाहा अलगोजा बजा रहा है। अक्षरधाम मंदिर के आगे शांत रात में झींगूरों की आवाज़ें के बीच तारों से भरा आसमान चमक रहा है। पुरानी प्रेमिका अचानक से मुस्कराकर हाल पूछती है।

साथी थोड़ी देर और बालों में हाथ फिराओ ना।



फोटो- सुमेर सिंह राठौड़

Monday 31 October 2016

एनकाउंटर का बुखार आया है...

दाग दाग उजाला ...

धाँय धाँय की आवाज...मार डालो काट डालो चीर डालो फाड़ डालो
इंसान नहीं हैं हम ... जानवर थे जानवर हैं
हम एक धर्म बनायेंगें ... लोगों को लूटेंगें
हम एक राष्ट्र बनायेंगें ... लोगों को मारेंगें
अमेरिका मुर्दाबाद ... हमें अमेरिका बनना है।
गाँधी जिंदाबाद ... हमें गोडसे की मूर्ति बनानी है।

चश्मों से दुनियाँ देखेंगें ... रंगीन दिखेगी 
17 मारो या 1700 तुम हत्यारे हो और हम बुझदिल

मारो ……………………………………………………………………………………
चित्र : सुमेर

राख का रंग...

ख़त जले, किताब जली और जल गयी मेरी दुनिया, अब बस राख बची है, घनी काली राख
जैसे जलने के बाद सबकुछ काला हो जाता है, ठीक वैसे ही सूरज का ढलना और रात का होना, जताता है घने काले रंग की ताकत, वह रंग जिसपर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता, मैंने अपना लिया है उस राख का रंग, जो राख हमारे खत, किताब और दुनिया की परिणति है, जिसका रंग अब कभी नहीं बदलेगा

चित्र: सुमेर सिंह राठौड़

दिवाली के बाद ...

दिवाली बीत गयी थी लेकिन रात बाकी थी। शहर में कोहरा फैला हुआ था। अख़बारों की सुर्ख़ियों में प्रदुषण की ख़बरें थी। भगवान गूँगा हो गया था और भक्त बहरे थे। चौराहे पर एक बच्चा पटाखों की राख में जिंदगी की चिंगारी ढूंढ रहा था। मेरी आँखों में उम्मीद की मौत का वह पानी था जिसकी जरुरत मुर्दा दुनियाँ को होली खेलने के लिए थी। त्यौहार में शहर था और शहर से गाँव दूर था।
चित्र : सुमेर

फिर भी जलते दीप देखकर गाँव याद आता है

धीरे-धीरे त्यौहार बदल रहे हैं। नई चीज़ें जुड़ती जाती हैं। घर-गाँव से दूर जिन चीज़ों को याद करते हैं दरअसल वो चीज़ें अब वहां से भी गायब हैं। मिलना-जुलना, खेल-कूद, खुद की बनाई चीज़ें, घर की बनी मिठाइयाँ। सब अब गाँव में भी बाज़ार से खरीदते हैं।

बस गाँव की प्रकृति किसी-किसी कोने में बची रह गई है। पेड़-पौधे और धरती, जानवर बचे हुए हैं। वही खींचते रहते हैं।
सुमेर

Saturday 29 October 2016

'लिसन अमाया' ज़िंदगी यादों से नहीं

"ज़िंदगी यादों से नहीं होती यादें ज़िंदगी का हिस्सा होती हैं"
यादें भी सच में रेत की तरह होती हैं। कई बार हम ज़िंदगी यादों के हिसाब से चलाने लगते हैं और उसमें हम अपने आसपास और खुद के होने को नहीं जी पाते। हमारे आस पास कितनी कहानियां हैं। कितने छोटे-छोटे खुशियों के मौके हैं। जाने क्यों हम हर जगह खरीददार बने रहते हैं, खुद नहीं होते।
'लिसन अमाया' आई लव ब्यूटिफुल सोल :)।

Friday 28 October 2016

क्रांति की साइकिल

JNU के विद्रोही जी मर गए लेकिन उनकी आत्मा अकलेश में घुस गयी और उन्होंने समाजवादी तरीके से सामन्तवादी परिवार से विदरोह कर दिया। पहली बार समाजवादी पार्टी में साम्यवादी क्रांति का प्रयोग हुआ है। कहाँ गए मार्क्स चचा के विरोधी जो कहते थे क्रांति नहीं होगी। जॉइंट फैमिली टूट रही है... खबर है कि समाजवादी पार्टी को जोडे रखने में RSS मदद करेगी ताकि संयुक्त परिवार की भारतीय संस्कृति सुरक्षित रहे। सब गोलमाल है।

Thursday 27 October 2016

जल थल जी में तू ही विराजे

अकेले नहीं होते हम कारवाँ में? राह में जो हाथ पकड़े छोड़ जाते हैं वो साथी होते हैं?
साल भर बाद अचानक से वो रास्ता रिवाइंड हो जाता है और हम ढूंढते हैं हाथ पर निशान कि अब भी राह में वो हाथ पकड़े चल रहे है।
गहराई रात में धूआं, छूटता हाथ और बैकड्रॉप में गा रहा कबीर 'जहाँ देखूं तू का तू'
सुनो इस राह में सब मुसाफिर है, नए मुसाफिर सफर मुबारक।


'तलाश' खुद की..!

अब निकल चुका हूँ मैं खुद की तलाशमें, बहुत पहले मैंने अपने भीतर जिसे पाया था, लंबे अरसे से उसे फिर नहीं देखा, शायद कहीं खो गया है वो, इस भीड़ में शामिल होते होतेया बन चुका है इसी भीड़ का हिस्सा जिसका होना सिर्फ दिखावा है, जिसकी खुद की कोई सच्चाई या तो होती नहीं और अगर होती है तो शायद कभी दिखती नहीं,
शायद इसी भीड़ में खो गया था मैं...

चित्र : अजय कुमार

Monday 24 October 2016

ख़त जले या जिंदगी...

उस दिन मैंने जला दिये थे सारे खत तुम्हारे, हरेक हर्फ़ जो हमदोनों की साझा किताब में लिखा जाना था। जिसे हमने न सिर्फ लिखा था बल्कि पिरोया था अपने एहसासों की गर्मी सेवो किताब अभी तक अधूरी है...
मैंने ख़त जला दिए थे मगर पाण्डुलिपि नहीं, क्योंकि उन ख़तों में अभी तक आग बाकी है,
और उस आग से अब तक जल रही है मेरी वो दुनिया, जो कभी हमारी हुवा करती थी.

चित्र: अजय कुमार

Thursday 20 October 2016

प्यार को गवाही की जरुरत नहीं

क्या आज सब कुछ कह दूँ ...? रात के अँधेरे से तुम्हें रोशनी की तरह देखना. डायरी के पन्ने पर तुम्हारे नाम लिखी अनेको अनभेजी चिठ्ठियों के शब्द. वह गीत जो मैंने गाया था गौरय्ये की जुगलबंदी में नदी के निर्झर तान के साथ. जाड़े की उस सुबह की बात जो धुंध के कारण मेरी नज़र तुमसे कह नहीं पाई.
लेकिन क्या ये सब कहना जरुरी है ?
अदालत में दी जाने वाली गवाही की तरह ! 
P.C.-Sumer Singh Rathore

Sunday 25 September 2016

प्रेम में अधिकारों का छिन जाना

नायिका जा रही थी और नायक... चुपचाप देख रहा था। उसे रोक कर अपने आलिंगन पाश में बाँध लेने के लिये, मगर मजबूर था। क्योंकि नायिका ने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया था। उधर वो भी बेचैन थी, मन ही मन में उसने कहा 'मैं अभी भी तुम्हारी हूँ', और नायक बस रो पड़ावह सोच रहा था
'किस अधिकार से कहूँ कि तुम मेरी हो? तुमने तो सारे अधिकार ही छीन लिए हैं मुझसे...!'

चित्र : सचिन भाटिया

Sunday 28 August 2016

पानी का गीत और रेत की धुन

जाड़े के मौसम में वह बसंत की तरह आया था और मैंने उसे रात के एकांत में महसूस किया. सुबह मुलायम-सा सूरज निकला तो वह रोशनी की किरन बना और मैं दूब पर पड़ी ओस की बूंद और हमने मिलकर रचा एक अनंत दूरी का इन्द्रधनुष. धूप की बारिश में मैंने गंगा के गीत गाए और उसने रेत की धुन छेड़ी. वक्त ने छुट्टी की घंटी बजायी और प्रेम  जन्म के पूर्व ही निर्वासित हुआ.
PC : Sumer

Saturday 27 August 2016

स्मार्ट शहर

अरसे बाद जब मैं अपने शहर पहुंचा तो देखा वहां सड़कों पर गढ्ढे नहीं थे बिजली भी कभी कभी कटती थी। हर जरूरी चीज अब आसानी से मिलने लगी, यहाँ तक की अच्छी नौकरी भी। लेकिन चिलचिलाती धूप से जलती गगनचुम्बी कंक्रीट की दीवारों में वो सुकून नहीं मिला जिसके लिये मैं वापस लौटा था। गंगा में पहले जैसा प्रवाह भी नहीं था। जानते हो क्यों?
क्योंकि मेरा शहर अब स्मार्ट सिटी बनने वाला है।

चित्र : अजय कुमार 

Friday 19 August 2016

पानी के किनारे कहानी

गाँव के ताल का पानी उतर गया था और ताल के किनारे कुत्तों का एक समूह कबड्डी के खेल की नक़ल उतार रहा था. ताल के बगल वाली नहर ने थोड़ा सा गर्भजल बचा रखा था ताकि नए प्रवाह का जन्म संभव हो सके. इन्सान की आवाजाही की कमी ने सूनेपन को और गहरा कर दिया था. पानी का उतर जाना जिंदगी का उतर जाना होता है चाहे वह ताल का हो या आँख का.
चित्र : पीयूष 
 

Monday 8 August 2016

खोने वाले लौट आते हैं क्या?

अचानक बादल काले हो गए। हवा रुक गई, पत्तों का शोर बंद हो गया। पीला गुबार दिखने लगा। बवंडर आ गया। पंछी चिल्लाने लगे। बंवडर के साथ आई तेज बारिश। पेड़ पर सफेद गालों वाली बुलबुल गाने लगी, बूंदों के साथ जुगलबंदी करके। पत्ते झरने लगे। सब कुछ हरा था। और एक दिन बुलबुल खो गई। पत्ते झड़ गए। गर्म हवा झुलसाने लगी। जाने कब फिर बदलेगा मौसम। खोने वाले कभी तो लौट आते होंगे?
(फोटो: सुमेर)

Friday 15 July 2016

लो मैंने जला दिये सारे ख़त तुम्हारे

लो जला दिये मैंने वो सारे ख़त तुम्हारे, हर एक हर्फ़, जो तुमने मुझसे कहा था। और वो सभी पंक्तियाँ जो मुझे सबसे ज्यादा सुकून देती थीं। अब सब कुछ जल गया, मेरे स्वाभिमान के तेज से या यूँ कहूँ कि मेरे क्रोध की ज्वाला में,
पर ये तो कुछ शब्द थे चन्द पंक्तियाँ थीं जो कागज पर लिखी थीं
मगर उस एहसास का क्या जो इन शब्दों में हम दोनों ने मिलकर पिरोया था।

चित्र : अजय कुमार

Monday 11 July 2016

लौटने के लिए आते हैं पर कभी लौट नहीं पाते हैं

हम चले आते हैं लौटने की ख़्वाहिशें लेकर लेकिन कभी लौट नहीं पाते।
कल डॉक्युमेंट्री देखी थी ताण बेकरो। जोगी, भील और कालबेलिया जनजातियों पर बनी है।
सवालों के जवाब देते हुए खुद पर गुस्सा आ रहा था। क्या इन जनजातियों के कोई हक़ नहीं हैं।
इनसे परम्पराएं तो छूट गई पर आधुनिक ना हो पाए। लटक गए बीच में।
कितना कठिन जीवन है बिना शिक्षा, बिजली, घर और रोटी के।
फिर भी मुस्कराते हैं।


(फोटो: सुमेर)

ये रास्ते हैं कि शतरंज की चालें

खुद के होने को ढूंढना सबसे कठिन काम है। मैं हर रात खुद को बड़ी मुश्किल से खोज निकालता और अगली शाम तक फिर से तलाश रहा होता हूं अपना वजूद।
कई बार किसी जगह हम खुद से डर जाते हैं। फिर उस जगह हम कभी सहज हो ही नहीं पाते। 
बहुत मुश्किल खेल है यह। इसे खेलने के लिए शातिर होना पड़ता है। मैं खुद को खोजता हूं तो शातिरपना मुझे नकार देता है।
(फोटो: सुमेर)

हवा में हिलता अस्तित्व

जहाज में आवाज का नामोनिशान नहीं था। अंदर आदमी थे पर बनावटी चुप्पी से सने हुए और बाहर सफ़ेद बादल जो आत्मा के साथ बकबक किये जा रहे थे। जमीन का आँखों के सामने न होना भयावह था और आसमान का और दूर होना दुखद। हवा गति देती है और अस्तित्व भी। जमीन स्पर्श देती है और सहारा भी। हवा में अस्तित्व की तलाश आसान लगती है। हम त्रिशंकु की भूमिका में आत्मविश्लेषण करते हैं।
PC : Peeyush