Monday 31 October 2016

फिर भी जलते दीप देखकर गाँव याद आता है

धीरे-धीरे त्यौहार बदल रहे हैं। नई चीज़ें जुड़ती जाती हैं। घर-गाँव से दूर जिन चीज़ों को याद करते हैं दरअसल वो चीज़ें अब वहां से भी गायब हैं। मिलना-जुलना, खेल-कूद, खुद की बनाई चीज़ें, घर की बनी मिठाइयाँ। सब अब गाँव में भी बाज़ार से खरीदते हैं।

बस गाँव की प्रकृति किसी-किसी कोने में बची रह गई है। पेड़-पौधे और धरती, जानवर बचे हुए हैं। वही खींचते रहते हैं।
सुमेर

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