हम चले आते हैं लौटने की ख़्वाहिशें
लेकर लेकिन कभी लौट नहीं पाते।
कल डॉक्युमेंट्री देखी थी ताण बेकरो।
जोगी, भील और कालबेलिया जनजातियों पर बनी है।
सवालों के जवाब देते हुए खुद पर
गुस्सा आ रहा था। क्या इन जनजातियों के कोई हक़ नहीं हैं।
इनसे परम्पराएं तो छूट गई पर आधुनिक
ना हो पाए। लटक गए बीच में।
कितना कठिन जीवन है बिना शिक्षा, बिजली,
घर और रोटी के।
फिर भी मुस्कराते हैं।
सवाल सवाल पूछने का नहीं जवाब देने का है
ReplyDeleteहक़ उनका भी है हमारा भी
उनको आगे आना है और हमें वापस लौटना है।
साव साची
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