Sunday 24 April 2016

रात की नदी और अज्ञेय चेतना

रात आधी बीत चुकी है। कमरे में एक सन्नाटा है जिसको पंखे की हवा चीर देती है। खिड़की के बाहर की दुनियां अँधेरे में कहीं गुम हो गयी है। नदी दूर चली गयी है और रेगिस्तान अब दोस्त बनता जा रहा है। कल 'आषाढ़ का एक दिन' है। मुक्तिबोध सी द्वन्दात्मक चेतना ही नियति है। किताब के पन्ने पलटते ही जिंदगी का एक अध्याय समाप्त हो गया। जीवन यात्रा आपको अज्ञेय बना कर छोड़ेगी। हवा...
चित्र साभार : पीयूष परमार 

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