भीङ से ऊबकर हम खुलेपन
में जाते है ताकि हमें एहसास हो आजादी का। एहसास हो कि इस भीङ भरे शहरों की
बहुमंजिला इमारतों से परे भी दुनिया है।
सर्द दिनों में कुछ
प्रवासी पँछी भी लम्बी उङानें तय करके तालाबों के किनारे खुले मैदानों में आते है।
लेकिन आजकल पँछी जमीन पर
नहीं उतरते और न खुलापन दिखता है। दिखेगा कैसे हमने सब मैदान और जंगल तो ढक दिये
ना विकास की चादर से।
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