Wednesday 16 December 2015

दत्तानी का नाटक बस दत्तानी का नहीं

उम्मीदें हाथ से छूट जाती हैं। ख़त फड़फड़ाते हुए तेज़ हवा में उड़ जाता है। वक़्त भागता हुआ सामने से निकल जाता है। चाहे जितना पीछा कर लें उतनी रफ़्तार हममें कहाँ?
वो पीछे हम आगे बढ़ते हैं...
हमारे पास रह जाती हैं बस कुछ यादें। यादें जो सहारा बनती हैं जिंदगी का। पर हमेशा नहीं कई दफे यादें ही होती हैं जो दम भी घोंटने लगती हैं। बुरी यादें आसानी से पीछा नहीं छोड़ती।

(फोटो: सुमेर सिंह राठौड़)


1 comment:

  1. यादों से भी कभी ज़ोर ज़बरदस्ती करनी पड़ती है दोस्त। वो न भी पीछा छोड़ें, हमें आगे बढ़ना पड़ता है।

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