Saturday 4 June 2016

बरगद यहां भी है पर वो छांव नहीं

टूटी पुरानी चारपाई। उस पर पड़ा मैं देखता रहता बरगद को। दिन का सबसे गर्म वक्त। बरगद के पत्तों की आवाज़ें। गौरेया और सफेद गालों वाली बुलबुल की चहचहाहट।
बरगद यहां भी होते हैं पर उनके नीचे वो छांव नहीं होती। अब गर्मियां चुभती हैं। दिन तो गुम ही हो गये। उनींदी रातें होती हैं। मशीन हुआ जाता शरीर लुढकता रहता है इधर उधर। 
कुछ तो फर्क है भले ही स्टेट ऑफ मांइड कह दो।


No comments:

Post a Comment